Wednesday 13 January 2016

हमारा राष्ट्रीय प्रतीक

#copied अशोक स्तंभ का जो स्वरुप हमारा राष्ट्रीय चिह्न है, वह अशोक स्तंभ का वास्तविक स्वरुप नहीं है। दरअसल असल अशोक स्तंभ में एक चक्र ऊपर भी था जिसमें 32 तीलियां थीं। जब अशोक स्‍तंभ को राष्‍ट्रीय चिह्न के तौर पर अपनाया जा रहा था तब एक सांसद ने इस ओर नेहरू का ध्यान आकृष्ट भी कराया लेकिन उन्‍होंने इसकी अनदेखी कर दी थी।”

कोलकाता के भव्य एकदलिया रोड पर स्थित मुखर्जी के घर में रात के खाने के बाद चार पीढिय़ों से एक ही विषय पर चर्चा चल रही है। प्रदीप्त मुखोपाध्याय आउटलुक से बातचीत में बताते हैं, ‘मेरे दादा अक्सर बताते थे कि नेहरू ने जब एक खंडित प्रतीक को हमारे देश के राष्ट्रीय चिह्न के रूप में मंजूरी दी थी तो वह कितना अचंभित हुए थे।’ जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में राज्यसभा सांसद, विद्वान और इतिहासकार रहे राधा कुमुद मुखर्जी के पोते प्रदीप्त मुखोपाध्याय अपने दादा और प्रथम प्रधानमंत्री के बीच आदान-प्रदान हुए पत्रों और दस्तावेज को सहेज कर रखे हुए हैं। इन दस्तावेज से पता चलता है कि देश के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकृत अशोक स्तंभ दरअसल मूल प्रतीक की प्रतिकृति नहीं बल्कि खंडित रूप है। इतना ही नहीं, नेहरू ने इस बारे में जानने की भी कोशिश नहीं की बल्कि जब मुखर्जी ने इस ओर ध्यान दिलाया तो उन्होंने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। मुखर्जी ने इसमें संशोधन के लिए हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था।
नेहरू को 27 अगस्त, 1957 में लिखे पत्र में राधा कुमुद ने लिखा, ‘हमें यह जानने के बाद बहुत फिक्र है कि हमारा राष्ट्रीय प्रतीक जो अशोक चक्र के नाम से जाना जाता है, वह सारनाथ के स्तंभ की असल प्रतिकृति नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात कि इस मूल प्रतीक के महत्व को खंडित रूप में पेश किया गया है।’ उस जमाने के प्रभावशाली नेताओं-हीरेन मुखर्जी, किशनचंद और सुचेता कृपलानी सहित नौ अन्य सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित इस पत्र में उन्होंने प्रतीक की बड़ी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाया था: ‘ऐसा लगता है कि मूल रूप में चार शेरों के कंधों पर 32 तीलियों वाला चक्र टिका हुआ है। मूल विचारधारा थी कि आध्यात्मिक ताकत प्रदर्शित करने वाला सच्चाई का यह चक्र चार शेरों के ऊपर होना चाहिए जो भौतिक ताकत को दर्शाता है। (हालांकि) इस बात के साक्ष्य हैं कि शीर्ष पर स्थित यह चक्र उस डंडे से निकल चुका है जिस पर यह टिका था और सारनाथ संग्रहालय में भी आप इस शीर्ष के बगैर शेर का सिर देख सकते हैं।’
बंगाली ऐतिहासिक शोध पर आधारित पाक्षिक पत्रिका देशकाल के संपादक श्यामलाल घोष ने इस विषय पर कई लेख लिखकर इस जटिल मुद्दे को समझाया है और लोगों की जानकारी में लाया है। वह बताते हैं कि 1949 में संविधान सभा की बहस के दौरान ही अशोक चक्र को राष्ट्र चिह्न के रूप में स्वीकार करने का फैसला किया गया। नेहरू ने इस सभा की अध्यक्षता की थी। इस ‘चक्र’ को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में स्वीकार करने तथा राष्ट्रीय झंडे में इसके इस्तेमाल को लेकर उन लोगों में कुछ असहमति भी थी जो यह समझते थे कि इसका धार्मिक निहितार्थ कुछ ज्यादा है। लेकिन नेहरू की दलील थी कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक अभिन्न प्रतीक है और इसलिए इसे राष्ट्रीय झंडे और राष्ट्रीय प्रतीक दोनों के लिए स्वीकार किया जाना चाहिए। सदन के ज्यादातर सदस्यों का भी यही नजरिया था। यह ‘चक्र’ प्राचीन बौद्ध सिद्धांतों का पालन करने वाले साम्राज्य का भी प्रतीक था जिसे सम्राट अशोक के काल में शांति और शक्ति का प्रतीक माना गया था। घोष बताते हैं, ‘अशोक स्तंभ उत्तर प्रदेश के सारनाथ के खंडहरों में मिला था जिसमें कई सारे चक्र बने हुए थे इसलिए यह सबसे उपयुक्त विकल्प था।’

असली अशोक स्तंभ के वृताकार आधार पर एक हाथी, एक बैल, एक घोड़े और एक शेर की चित्रकारी की गई है। प्रत्येक चित्र के बाद चक्र है और 24 तीलियों वाला एक पहिया है जो 24 ‘आचारी धर्म’ यानी जीवन के तौर-तरीकों का प्रतीक है। घोष के मुताबिक, सन 1949 में संविधान सभा की बहस के फैसले के अनुसार भारतीय तिरंगे और राष्ट्रीय प्रतीक के चार शेरों के कंधों पर चक्र रखने का मकसद इसे महाधर्म चक्र बनाना था जिसमें 32 तीलियां होती हैं। घोष बताते हैं, ‘यह चक्र बौद्ध सिद्धांतों पर आधारित है जिसमें ‘चार सत्य’ और जीवन के ‘8 तौर-तरीके’ ( 4 गुणा 8 यानी 32) होते हैं। वास्तविक अशोक स्तंभ में चार शेरों के कंधों पर ऐसा एक ही चक्र है, जिस बारे में राधा कुमुद मुखर्जी और उनके सांसद मित्रों ने नेहरू को पत्र लिखा था। राष्ट्रीय प्रतीक की प्रतिकृति तैयार करने के लिए जब डिजाइनरों को सारनाथ भेजा गया था तो यह महाधर्म चक्र या तो गायब हो गया होगा या गिर गया होगा, जैसाकि राधा कुमुद बताते हैं।’
सन 1963 में प्रदीप्त के दादा का 83 साल की उम्र में जब निधन हुआ था तो वह 12 साल के थे। वह बताते हैं कि उनके दादा सही और गलत की समझ रखने वाले सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। उन्हें बेईमानी या तुच्छता बर्दाश्त नहीं थी, खासकर जब हमारे राष्ट्रीय प्रतीक का महत्व हो। वह अक्सर भारत की छवि एक ऐसे देश के रूप में कायम रखने की जरूरत पर जोर देते थे, जो सहिष्णुता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ ताकत और निडरता के लिए जाना जाता हो। इसलिए वह इसे स्वीकार नहीं कर सके।

अपने पत्र में राधा कुमुद ने लिखा, ‘हम समझते हैं कि अपने देश के प्रतीक को हमें इस रूप में नहीं स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यह एक ऐतिहासिक भूल थी। उस स्तंभ से चक्र निकल जाने की विशुद्ध दुर्घटना मूल ढांचे की संक्षिप्त प्रतिकृति के लिए न्यायसंगत नहीं हो सकती। इसके अलावा जिस चक्र को इस शीर्ष फलक पर अब उकेरा गया है, वह मूल ढांचे के महत्व और प्रतीक की व्याख्या नहीं करता है, जिसमें आध्यात्मिक मूल्यों की विशिष्टता पर जोर दिया गया है। यदि हम इस त्रुटि को सुधार लें तो यह हमारे सिद्धांतों और आदर्शों के अनुकूल होगा। अगर हम अशोक के आदर्शों को पुनर्जीवित करना चाहते और असल में हम ऐसा कर भी चुके हैं, तो हमें इस स्मृति चिह्न के विकृत आयाम वाले स्वरूप को जारी नहीं रखना चाहिए।’ प्रतीक में संशोधन की दिक्कतों के समझते हुए उन्होंने मशवरा देते हुए कहा और यहां तक कि पत्र में भी लिखा, बदलाव के खर्च का आकलन चंद लाख रुपये से ज्यादा का नहीं है। प्रदीप्त बताते हैं कि नेहरूजी के जवाब से मेरे दादा सन्न रह गए थे। इस बारे में उनके पिता और राधा कुमुद के पुत्र प्रद्युम्र ने एक बार बताया था कि उन्हें इस जवाब पर यकीन नहीं हो पाया। सिर्फ चार वाक्यों के जवाब में अगले ही दिन उन्होंने पत्र लिखा, जो नि:संदेह उनकी अनिच्छा को व्यक्त कर रहा था। उन्होंने लिखा कि इसमें बदलाव की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने 28 अगस्त 1957 को मुखर्जी को पत्र लिखा, ‘मुझे नहीं लगता कि इस प्रतीक को लेकर अब सवाल उठाने और कोई बदलाव करने की जरूरत रह गई है।’ मजे की बात है कि नेहरू ने अपने पत्र में पहले के उस मौके का भी जिक्र किया था जब राधा कुमुद ने उस त्रुटि की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था।   
SUKHDEV MEENA BAINADA

चलो भगवान को ढूँढें

आखिरकार मुझे पता लग ही गया कि आपके भगवान और खुदा कहाँ रहते है?
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1. गजराज ( हाथी ) का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया तो उसने हरि को पुकारा था हरि नंगे पाँव दौड़े आये और मगरमच्छ का वध कर गज को मुक्त कराया।
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2. दुशासन ने द्रोपदी का चीर हरण किया तो उसने भी हरि को पुकारा तब हरि ने आकर उसको भी बचाया।
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3. होलिका ने प्रह्लाद को जलाने की कोशिश की तो प्रह्लाद ने हरि को पुकारा तब हरि उसको भी बचाने आया था।
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4. गोकुल ग्रामवासियों ने इंद्र के प्रकोप से बचाने हरी को बुलाया, हरी ने गोवेर्धन पर्वत एक उँगली से उठाकर उनको बचाया।
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इन चार बिन्दुओ के अलावा 10-20 बिंदु आप भी जोड़ लेना क्योंकि ऐसे किस्सों की काल्पनिक ग्रन्थों में कमी नहीं है।
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अब वास्तविक घटनाओं पर आते है:-
1. महमूद गजनवी ने भारत पर 17 आक्रमण किये, सोमनाथ का मंदिर लूटा और भयानक मार काट की थी। भक्तो ने फिर भगवान को पुकारा। गजनवी के सैनिक रक्तपात करते रहे लेकिन कोई भगवान नही आया ?
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2. भारत पर हमला करने शक, तुर्क, गौरी, ख़िलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुग़ल , डच, अंग्रेज़ आये, लेकिन भारत भुमि को लम्बी गुलामी से बचाने कोई हरी नहीं आये ?????
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3. औरंगज़ेब ने आपके भक्तों को मार मार मुसलमान बनाया, लेकिन कोई हरि सहायता को नहीं आये ??
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4. जब हर साल हजारों की संख्या में औरतों से बलात्कार होते है तब वो ईश्वर की दुहाई देकर बचने का प्रयास करती है लेकिन भगवान सिर्फ द्रोपदी की तरह उनकी लाज बचाने कभी नहीं आते है।
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5. जब केदारनाथ में प्रलय आ गयी , 20000 भक्त मारे गए। भक्त फिर भगवान को सहायता के लिए पुकारते रहे लेकिन कोई भगवान नही आया। भक्त मरते रहे और भगवान देखते रहे!!
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6. मक्का में लोग भगदड़ में मर गए लेकिन कोई अल्लाह नहीं आया बचाने।
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7. सीरिया में लोग मर रहे है लेकिन कोई अल्लाह बचाने नहीं आ रहा है।
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8. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमलें को रोकने कोई ईसा मसीहा नहीं आया।
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9. जब नेपाल में भूकंप आया । भक्त फिर भगवान से प्रार्थना करने लगे लेकिन कोई भगवान नही आया बचाने ।
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10. इससे पहले भी सुनामी, भूकंप, दंगे-फसादों या कोई अन्य त्रासदी होने पर भी सब ईश्वर को पुकारते रहे लेकिन कभी कोई भगवान नही आया।
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11. लादेन, बगदादी, दाऊद जैसे मानवता के विरोधियोँ को रोकने भगवान कभी नहीँ आता है।
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उपर्युक्त बातों से क्या सिद्ध होता है?
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इससे सिर्फ एक ही बात सिद्ध होती है कि भगवान बचाने को तो जरुर आता है लेकिन सिर्फ काल्पनिक किस्से कहानियों में आता है।
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अब अगला सवाल होता है कि भगवान कब सहायता करने आता हैं ?
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सीधी सी बात है जब उच्च कोटि का लेखक काल्पनिक कहानी लिखता है तो वो कुछ पात्रों को ईश्वर का नाम देता है और वो पात्र केवल उसी कहानी में मदद करने का रोल अदा करता है।
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अगला सवाल है कि भगवान किसकी मदद करता है?
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निष्कर्ष कहता है कि भगवान पौराणिक कथाओं के सिर्फ अपने जैसे ही काल्पनिक पात्रों की रक्षा करता हैं।
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अगला सवाल यह है कि भगवान कहाँ रहता है ?
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ईश्वर का अस्तित्व मानव मस्तिष्क के अलावा कहीं नहीं है। वो कुछ लोगों के दिमाग में डर के रूप में बसे होने के अतिरिक्त मिथकीय (झूठे) किस्से कहानियों में ही रहता है।
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इन तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष यह निकलता है की यथार्थ और वास्तविकता के धरातल पर न तो कभी किसी ने ईश्वर को देखा है और ना ही कभी कोई भगवान किसी की मदद आयें है। ये केवल काल्पनिक कहानियों के काल्पनिक पात्र है। धर्म-ईश्वर-भगवान-अल्लाह-स्वर्ग-नरक-जन्नत जैसे शब्दों का चयन केवल लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए किया गया।

सुखदेव मीणा बैनाड़ा
SuKhDeV mEeNa bAiNaDa
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Tuesday 12 January 2016

जरा इस पर भी गौर करो

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 सुखदेव बैनाड़ा 
हिंदू/मुस्लिम पडे और गौर करें....
(कट्टर धार्मिक लोग दुरहे)
अयोध्या के हिंदू कहते हैं अयोध्या में राम जन्मे. वहीं खेले कूदे बड़े हुए. बनवास भेजे गए. लौट कर आए तो वहां राज भी किया. उनकी जिंदगी के हर पल को याद करने के लिए एक मंदिर बनाया गया. जहां खेले, वहां गुलेला मंदिर है.
जहां पढ़ाई की वहां वशिष्ठ मंदिर हैं.
जहां बैठकर राज किया वहां मंदिर है.
जहां खाना खाया वहां सीता रसोई है.
जहां भरत रहे वहां हनुमान मंदिर है. कोप भवन है. सुमित्रा मंदिर है. दशरथ भवन है. ऐसे बीसीयों मंदिर हैं. और इन सबकी उम्र 400-500 साल है. यानी ये मंदिर तब बने जब हिंदुस्तान पर मुगल/मुसलमानों का राज रहा
अजीब है न! कैसे बनने दिए होंगे मुसलमानों ने ये मंदिर! उन्हें तो मंदिर तोड़ने के लिए याद किया जाता है. उनके रहते एक पूरा शहर मंदिरों में तब्दील होता रहा और उन्होंने कुछ नहीं किया! कैसे लोग थे वे, जो मंदिरों के लिए जमीन दे रहे थे. शायद वे लोग झूठे होंगे जो बताते हैं कि जहां गुलेला मंदिर बनना था उसके लिए जमीन मुसलमान/मुगल शासकों ने ही दी थी
दिगंबर अखाड़े में रखा वह दस्तावेज भी गलत ही होगा जिसमें लिखा है कि मुसलमान राजाओं ने मंदिरों के बनाने के लिए 500 बीघा जमीन दी थी
‪#‎_सच_तो_बस_बाबर_है‬ ‪#‎_और_उसकी_बनवाई_बाबरी_मस्जिद‬!
अजीब बात हे। बाबर राम के जन्म स्थल को तोड़ रहा था और तुलसी लिख रहे थे
‪#‎_मांग_के_खाइबो_मसीत_में_सोइबो‬
और फिर उन्होंने रामायण लिख डाली. राम मंदिर के टूटने का और बाबरी मस्जिद बनने का क्या तुलसी को जरा भी अफसोस न रहा होगा! कहीं लिखा क्यों नहीं उन्होंने!
अयोध्या में सच और झूठ अपने मायने खो चुके हैं. मुसलमान पांच पीढ़ी से वहां फूलों की खेती कर रहे हैं. उनके फूल सब मंदिरों पर उनमें बसे देवताओं पर.. राम पर चढ़ते रहे. मुसलमान वहां खड़ाऊं बनाने के पेशे में जाने कब से हैं. ऋषि मुनि, संन्यासी, राम भक्त सब मुसलमानों की बनाई खड़ाऊं पहनते रहे.,,,
1949 में इसकी कमान संभालने वाले मुन्नू मियां 23 दिसंबर 1992 तक इसके मैनेजर रहे जब कभी लोग कम होते और आरती के वक्त मुन्नू मियां खुद खड़ताल बजाने खड़े हो जाते तब क्या वह सोचते होंगे कि अयोध्या का सच क्या है और झूठ क्या?
अग्रवालों के बनवाए एक मंदिर की हर ईंट पर 786 लिखा है. उसके लिए सारी ईंटें राजा हुसैन अली खां ने दीं. किसे सच मानें? क्या मंदिर बनवाने वाले वे अग्रवाल सनकी थे या दीवाना था वह हुसैन अली खां जो मंदिर के लिए ईंटें दे रहा था? इस मंदिर में दुआ के लिए उठने वाले हाथ हिंदू या मुसलमान किसके हों, पहचाना ही नहीं जाता.,,
तारीख 22-7-1992 को सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद की सुरक्षा का सख्त आदेश दिया
लेकिन 6 दिसम्बर को पहले से तय योजना के तहत सांप्रदायिक आतंकवादीयों ने मस्जिद शहीद कर दी |
मेरा सवाल ‪#‎_क्या_मिला‬ ................
छह दिसंबर 1992 के बाद सरकार ने अयोध्या के ज्यादातर मंदिरों को अधिग्रहण में ले लिया.
वहां ताले पड़ गए.
आरती बंद हो गई.
लोगों का आना जाना बंद हो गया.
बंद दरवाजों के पीछे बैठे देवी देवता क्या कोसते नही होंगे उन्हें जो एक गुंबद पर चढ़कर राम को छू लेने की कोशिश कर रहे थे?
सूने पड़े हनुमान मंदिर या सीता रसोई में उस खून की गंध नहीं आती होगी जो राम के नाम पर अयोध्या और भारत में बहाया गया?
क्या अब तक राम मंदिर बन सका ?
क्या धर्म के ठेकेदारों जिन्होंने बाबरी मस्जिद को सहीद किया उन्हें सरकारी मेडलो से नवाजा गया ?
नोट :- इस पोस्ट को किसी भी धर्म की बेज्जती न समझा जाए । प्रस्तुत लेख अयोध्या के रहवासियों के ब्यान अनुसार लिखा गया है - कृप्या कर अपने विचार व्यक्त जरूर करे पर किसी भी धर्म के कट्टर लोग गाली गलोच कर अपने परिवार और धर्म की ‪#‎_विशेषता‬ का प्रमाण न दें....

From : wasimakramtyagi : sir

Sunday 10 January 2016

SUKHDEV MEENA BAINADA

मुझे हमेशा से ही घूमने का शौक रहा है। मीणा समाज के ग्रामीण इलाक़ों का भ्रमण करने के बाद मैं एक ही निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मीणा समाज के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को घर का मुखिया नहीं माना जाता है। मीणा समाज की महिलाओं पर बंदिशें अधिक हैं। हमारे समाज के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं घूंघट करने को बाध्य हैं। हमारे समाज की महिलाओं को आर्थिक रूप से घर के मुखिया पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है। केवल मजदूरी करने वाली महिलाएं ही इन ग्रामीण इलाकों में घर से अकेले बाहर निकलती हैं। अन्य कोई भी महिला घर से अकेले बाहर नहीं जा सकती है। इसके सामाजिक और पारंपरिक दोनों ही कारण हैं। यही वहज है कि हमारे समाज के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं आर्थिक, मानसिक और शारीरिक तौर पर कमजोर हो जाती हैं। उन्हें अर्थ के अभाव में चार दीवारों के भीतर बंद रहने को मजबूर कर दिया जाता है। इन ग्रामीण इलाकों में अब भी महिलाओं को उच्च शिक्षा नहीं दी जाती है। न ही किसी कार्य में उनसे सहमति लेने की जरूरत समझी जाती है। ये महिलाएं दीवार के पीछे रहकर, मुंह से कुछ न कहकर, केवल सिर हिलाने को मजबूर होती हैं।

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महिलाओं का सामाजिक और आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र नहीं होना उन्हें ग्रामीण इलाकों में मुखिया न माने जाने का संभवत: प्रमुख कारण है। महिला को मुखिया के तौर पर स्वीकार न करने के कारण उसका आर्थिक रूप से कमजोर होना है। आर्थिक अभाव के कारण महिला पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर कमजोर कर दी जाती है।

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महिलाओं को सशक्त होने के लिए पहले उनका शिक्षित होना जरूरी है। शिक्षित होने से महिलाओं का आत्मबल मजबूत होगा। महिलाओं को सही और गलत का पता लग पायेगा। वे समझ पायेंगी कि उनके लिए सही क्या है, और गलत क्या है? इसके लिए जरूरी है कि सरकार जमीनी तौर पर महिलाओं को आर्थिक तौर पर सशक्त करने की योजनाएं बनाए। जो महिलाएं बंदिशों के चलते घर से बाहर नहीं आ सकती, उनके घर तक योजनाओं को पहुंचाया जाएँ। उन्हें समाज से जोड़ें और उनकी भूमिका सुनिश्चित कर सशक्त बनाया जाये।

कोई महिला परिवार की मुखिया न भी बने, लेकिन वह इतनी आत्मनिर्भर जरूर हो कि समय आने पर अपना और अपने परिवार का सम्मान पूर्वक पालन-पोषण कर सके। तब ही हमारे समाज की ग्रामीण महिलाएं सशक्त हो पायेगी।


आपका बेटा तो हमेशा आपकी सुरक्षित छाँव में रहेगा लेकिन बेटी को तो पराये घर भेजने की जल्दीबाजी रहती है। लेकिन पराये घर भेजने से पहले हो सके तो अपनी बेटी को ऐसी 2 आँखे दे देना जो आपका सन्देश पढ़ सके, 1 कलम भी उसे दे देना जिससे वो अपनी बात आप तक पहुँचा सके और एक उपलब्धि भी दे देना जो उसका सम्मान बढ़ा सके...!