Monday 4 November 2019

गाँव मरता जाए,,बचाने कोई ना आये😭


गाँव खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. बुज़ुर्ग माता-पिता मौत का इंतजार अथाह अकेलेपन में कर रहे हैं. जवान बेटे दूर शहरों में पाँच-दस हज़ार की नौकरियाँ कर रहे हैं और उनकी बीवियाँ पति की कमाई आने का इंतज़ार.

गांव में जो नौजवान बचे हैं वो मोबाइल पर फ़ेसबुक और वॉट्सऐप में लगे हुए हैं. इनके पास मोटरसाइकिलें भी हैं और कुछ लोग सड़क पर शौच करने इसी से जाते हैं. सरकारी स्कूल दलित बच्चों के लिए है जहाँ उन्हें खिचड़ी खाने के लिए लाया जाता है. दस बारह-हज़ार वाले टीचरों के लिए यह पार्ट टाइम जॉब है.

गाँव से सवर्णों का भयावह पलायन है. घरों में ताले लटक रहे हैं. जो गाँव में किसी वजह से बचे हैं वो ख़ुद को बदकिस्मत बताते नहीं थकते. स्कूल का मैदान कभी बच्चों और नौजवानों से शाम में भर जाता था वो किसी डरावनी जगह की तरह लगता है.

सवर्णों के पास ज़मीन थी जिसे बेच शहरों में शिफ्ट हो रहे हैं, तो पिछड़ी जातियों और दलितों में ज़मीन का मालिक बनने की हसरत है.

लोगों में मेहनत को लेकर भरोसा कम हुआ है. गाँव में विरले ही ऐसे होते थे जिनकी तोंद निकलती थी. अब यह आम बात हो गई है. डायबिटीज़ आम बीमारी बनती जा रही है. लोग शहरियों की तरह मॉर्निंग वॉक पर जाते हैं.

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने की होड़ है लेकिन दसवीं से पहले ही 95 फ़ीसदी बच्चे बिहार बोर्ड यानी हिन्दी मीडियम में आ जाते हैं. इसका नतीजा ये हो रहा कि वो न हिन्दी सीख पा रहे न अंग्रेज़ी.

नेहरू-गांधी परिवार को लेकर वॉट्सऐप ने युवाओं के बीच ख़ूब नफ़रत बढ़ाई है. युवा मानने को तैयार नहीं होते कि फ़िरोज़ गांधी पारसी थे. नेहरू को सब देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त मानने लगे हैं. गाँव मर रहा है. बेमौत.
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सुखदेव
टोडाभीम(राजस्थान)

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