Thursday 13 January 2022

आदिवासी मीणा (एक आदिम जनजाति)

किसी जिज्ञासु ने पूछा भाईसाहब ये मीणा क्या होते है । 
तो एक कलम के शिकारी ने शब्दों की समरसता से जबाब दिया - बैसे भाईसाहब ये मीणा होते कुछ नही, पर है बहुत कुछ । मीणा एक जनजाति है यह पहाड़ी -ढलानो और मैदानी क्षेत्रों मे पायी जाती है । ये जनजाति ज्यादातर जयपुर , दौसा , करौली , टोक , सबाई माधौपुर , अलवर , कोटा मे पाई जाती है लेकिन प्रभाव पूरे राजस्थान मे रखती है भले बातों से ही क्यों न हो , । गरीबी इस कदर है की यदि नौकरी भी लगे  ईमानदारी की तो 5 साल तो माथे के चुकाने मे लगा देते है , फिर लुगाई बच्चे मतलब एक मोटरसाईकिल खरीदने के लिए भी 50 बार सोचणा पड़ता है । हां बैसे हमारे ऐसे भी है यदि 1 लाख रूपये भी घर मे हो गये तो टीटी हो जाते है , यानि शांति कम है पैसे को पचाना सीख रहे है अभी ।
हमको सब दुनिया बेवकूफ बणा सकती है लेकिन हम आजतक किसी को बेवकूफ नही बणा सकै । बात यदि नाक की आ गयी तो नुक्ता पूरे गांव को होवेगा, भात मे 3 लाख ही देवेगे, दहेज मे तो आग पाड देगे , भले बाद मे एक दो खेत बेच ही क्यों न दे ,। जामणा तिया टिका , अरे मतलब खतरनाक आदमी है । 
यदि हमको सुबह छाछ-राबडी और रात मे दुध-राबडी ना मिले तो नींद ना आवै , । घी की तो गंगाजी हमारे द्वार से ही निकलती है । इसलिए हम आधा घी तो भगवान् , भैरौजी, हिरामन, पठाण पर ही चढा देते है । 
मेहमान को भगवान् समझते है यदि आपके नाम के पीछे मीणा है तो समझ लो , 2 घंटे मे 17 रिश्तेदारी निकालकर , रिश्ता जोड़ ही लेगे । क्या बताये महाराज राजनीति मे वर्तमान हालत ऐसी है हमारी की ना हिन्दू ही है ना मुसलमान ही है । कुछ दिन पहले अलग ही विचारधारा से जुडे थे , म्हारा मटा की बा भी कोन चली दुकान , शटर लगा लिया ।
दुनिया कान काट लेती है इस जमाने मे , लेकिन हमारे भाई इतने भोले है की यदि किसी ने थोड़ा भी चणे के पेड़ पर चढा दिया तो चाय की दुकान से 200 रूपये हँसते हँसते ढिला करके आ जायेंगे ।
हमारे यहाँ दिन की शुरूआत भैंस को गाली से शुरू होती है भैंस की गाली पर खत्म होती है ( बड री छ्दयाड , औ मान जा लौहडी, तोकू तो दयारी कसाई पे कटाऊगी ) 
बैसे तो हम दिन मे पचास बार लडते है लेकिन यदि बात मीणा एकता की आ गयी तो सामने बाले का चामडा चमनलाल बणाने मे टाईम नही लगाते ।
हम अपना मनोरंजन देशी मीणा गीत , पद , कन्हैयाऔ से करते है । कुछ गीत हमारे इतने तीखे होते है की सुण लिये तो शरीर की रौम रौम खडी कर देते है ।
हमारे माँ-बाप का एक ही उदेश्य है चाहे हमारे शरीर मे सिर्फ  हड्डी रह जाये लेकिन बेटा बेटी पढे । जमीन , गहने बेचकर भी हमे हमारे माँ-बाप अच्छी शिक्षा दिलाते है और यही कारण है की हम पूरे भारत मे नाम रौशन करते है। 
हमारे समाज मे बेटा बेटी मे कोई भेद नही। 
हमे किसी फर्जी लोगों से देशभक्ति का सर्टिफिकेट लेणे की जरूरत नही है क्योंकि हम हमारी जनसंख्या के प्रतिशत से ज्यादा संख्या मे सेना , पुलिस और अर्धसेनिक बलो मे सेवा देते है । और बैसे हम किसान है तो सर्टिफिकेट माँगने की हिम्मत तो हमसे कोई करता ही नही। बैसे तो हम हर विभाग मे कायम है लेकिन रेलवे से हमारा अलग ही लगाव है । 
हमारी भेषभूषा तो दुनिया मे निराली है और सबसे मँहगी भी , । पूर्वी राजस्थान के व्यापारी वर्ग को हमारे लहगा लूगडी और धौती कुर्ता ने ही चला रखा है , । वरना हमने तो करोड़ पतियो की 50 रूपये के पजामा और 300 रूपये की साडी मे घूमते देखा है ।
हमारे अपनेपन की दुनिया दीवानी है क्योंकि हम यदि कन्याकुमारी से लेकर जम्मू तक घूमने जाते है तो कमरा या होटल नही , सिर्फ मीणा नाम ढूढते है ।
नेता नूती तो जो थमारे है वही हमारे है एक दो को छोड़कर सब घर बाधते है ।
हमारे यहाँ शादियो मे प्लेट से नही शक्कर से आदमी की तुलना करते है । हमारे यहाँ बारात गिनते नही, आईडिया बताया जाता है । यदि बारात धणी ने 400 बताई है तो खाणा 700 का बणेगा , भले सुबह भैंस ही चरै, रसगुल्लान कू ।जितना आपके पूरी शादी मे मिठाई बणाते है इतना तो हम बहण बेटी के बाध देते है वो भी शादी के बाद ।
जितना तुम्हारा परिवार साल भर घी खाते है इससे दुगणा तो हमारे लुगाई जापा मे खा जाती है ।
यदि शादी मे डीजे नही तो शादी का मजा नही। नियम हमारे पटेल बणाते है और हर नियम पटेल के कारण मे ही टूटता है । 
फिजूल खर्ची मे हमे भारत रत्न दिया जाणा चाहिए । 
स्वाभीमान हममे कूट कूट कर भरा है मेहनत करते है भीख नही माँगते , ना अपने हक को कभी छोडते , चाहे जान निकल जाये । 
हमारी जाति मे अबतक कोई भिखारी नही है । 
उच्च पदो पर बैठे अधिकारी , कर्मचारी , नेता हमारी शान है । 
हर खेती करता किसान और हमारा भाईचारा हमारी जान है ,,....!
हमे मौका नही मिलता , दिल के अरमान लिखने और बोलने का :। नही तो हममे ऐसी कई कलम सामने बाले मुंह पर ताला ठोंक सकती है ।

Wednesday 31 March 2021

वो भी क्या दिन थे....

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें ।

पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।

“पुस्तक के बीच विद्या , पौधे की पत्ती और मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास था"। 

कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था ।

हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर कवर चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था ।

माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी। 
सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे ।    

एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं ।    

स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा अहम हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नही थे कि अहम होता क्या है ?

पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी , ”पीटने वाला और पिटने वाला दोनो खुश होते थे" , 
पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुवा। 

हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि हमें "आई लव यू" कहना नहीं आता था ।

आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।

हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमें हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियाँ में थे।

कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे ।

अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है, वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं ।

हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे, काश वो समय फिर लौट आए |
सुखदेव बैनाड़ा

Monday 4 November 2019

गाँव मरता जाए,,बचाने कोई ना आये😭


गाँव खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. बुज़ुर्ग माता-पिता मौत का इंतजार अथाह अकेलेपन में कर रहे हैं. जवान बेटे दूर शहरों में पाँच-दस हज़ार की नौकरियाँ कर रहे हैं और उनकी बीवियाँ पति की कमाई आने का इंतज़ार.

गांव में जो नौजवान बचे हैं वो मोबाइल पर फ़ेसबुक और वॉट्सऐप में लगे हुए हैं. इनके पास मोटरसाइकिलें भी हैं और कुछ लोग सड़क पर शौच करने इसी से जाते हैं. सरकारी स्कूल दलित बच्चों के लिए है जहाँ उन्हें खिचड़ी खाने के लिए लाया जाता है. दस बारह-हज़ार वाले टीचरों के लिए यह पार्ट टाइम जॉब है.

गाँव से सवर्णों का भयावह पलायन है. घरों में ताले लटक रहे हैं. जो गाँव में किसी वजह से बचे हैं वो ख़ुद को बदकिस्मत बताते नहीं थकते. स्कूल का मैदान कभी बच्चों और नौजवानों से शाम में भर जाता था वो किसी डरावनी जगह की तरह लगता है.

सवर्णों के पास ज़मीन थी जिसे बेच शहरों में शिफ्ट हो रहे हैं, तो पिछड़ी जातियों और दलितों में ज़मीन का मालिक बनने की हसरत है.

लोगों में मेहनत को लेकर भरोसा कम हुआ है. गाँव में विरले ही ऐसे होते थे जिनकी तोंद निकलती थी. अब यह आम बात हो गई है. डायबिटीज़ आम बीमारी बनती जा रही है. लोग शहरियों की तरह मॉर्निंग वॉक पर जाते हैं.

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने की होड़ है लेकिन दसवीं से पहले ही 95 फ़ीसदी बच्चे बिहार बोर्ड यानी हिन्दी मीडियम में आ जाते हैं. इसका नतीजा ये हो रहा कि वो न हिन्दी सीख पा रहे न अंग्रेज़ी.

नेहरू-गांधी परिवार को लेकर वॉट्सऐप ने युवाओं के बीच ख़ूब नफ़रत बढ़ाई है. युवा मानने को तैयार नहीं होते कि फ़िरोज़ गांधी पारसी थे. नेहरू को सब देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त मानने लगे हैं. गाँव मर रहा है. बेमौत.
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1041350826204353&id=100009883358545
सुखदेव
टोडाभीम(राजस्थान)

Friday 20 September 2019

बदलती जिंदगी

हमारी आखरी पीढ़ी होगी....
बैलगाड़ी ऊँटगाड़ी में बैठ कर मौजी खाने वाली , खेत मे बैल हल चलाते समय कुली काड़ते समय मोजी खाना, ट्रॉली का ढाला पर बैठ कर मैला या बरात में जाना, खेत मे जाते समय तार की बग्गी व बंगड़ चलना, एक साइकिल पर चार चार दोस्त को बैठा कर घूमते रहना , स्कूल की ड्रेस पहन कर रिश्तदारी में जाना, ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में फिल्म मैच सीरियल आदि देखना , सर्दियो में कोउ पर तापना, लेज से कुआँ में से पाणी खिंच कर पीना , धड़ीमार धोखा खेलना ,लंबी घोड़ी व फुसफुस घोड़ी खेलना, खाती छोड़ो व आसपास खेलना गुलाम लाखड़ी, रामलीला देखना ,  साइकिल का सर्कस देखना ये सब करने वाली व देखने वाली ये अपनी पीढ़ी आखरी होगी....

एक गेंद लाने के लिए  सभी दोस्तों से एक एक रुपया उगाना , कपड़े की गेंद बना कर उससे खेलना, स्कूल में बोर्ड पर लिखे शब्दो को मिटाने के लिए डस्टर घर से बना कर ले जाना..काम करने के लिए पासबुक नही होने पर दोस्त से पासबुक मांगना, पेट दर्द का बयाना कर के रेस्ट में घर आ जाना , सुबह शाम अंटा खेलना , चिमनी की रोशनी में पढ़ाई व होमवर्क करना , जब छोटे बच्चे थे तब तीन पहिये के गुढ़कले पैदल पैदल चलना ऐसी कई बाते हैं जो धीरे धीरे खत्म होती जा रही हैं ,
और आनी वाली पीढ़ी तो इन सब खेल व इन बातों को बिल्कुल भूल जायेगी ...
पोस्ट पढ़ने के लिए आपका शुक्रिया ....
👉सुखदेव
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