Sunday 28 January 2018

क्रांति तो होनी है....

अगर खिलाफ है होने दो, चाँद थोड़ी है
ये सब धुआ है कोई आसमान थोड़ी है

लगेगी आग तो आयेंगे घर कई जद में
यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है

मुझे खबर है के दुश्मन भी कम नहीं
हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है

हमारे मुह से जो निकले वही सदाकत है
हमारे मुह में तुम्हारी जुबान थोड़ी है

जो आज साहिबे मसनद है कल नहीं होंगे
किरायेदार है ज़ाती, मकान थोड़ी है

सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है-

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साजिशे हवाऐं इस कद्र करने लगी है
पक्तियाँ शाख से टूटकर गिरने लगी है।

जहर घुलता जा रहा है फिजाँओ मे
कि साँस भी बार बार उखाड़ने लगी है।

मिलकर घर का बोझ उठाएं हुऐ थी
वो चार दीवारे भी अब हिलने लगी है।

चिराग अंधेरो से लड़ते रहे रात भर
रात रौशनी के साये मे पलने लगी है।

कभी मुस्कान थी,हर दिल मे भरी
अब माथे मे सलवटे पड़ने लगी है।

सारा दिन धुंध से सूरज लड़ता रहा
कि अचानक फिर शाम ढलने लगी है।

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